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पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/३१

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सम्मति।

मर्यादा-सम्पादक श्रीयुत या॰ सम्पूर्णानन्द-ओ, पी॰ एस॰ सी॰, एल॰ टी॰ महोदय ने, छपने के समय में ही इस नाटक को देखकर जो सम्मति इसके सम्बन्ध में प्रदान की है, वह निम्नलिखित अनुसार है---

"आजकल हिन्दी के पाठकों की जैसी अभिरुचि होती जाती है, उसे देखकर हर्क होती है। लोग पारसी कम्पनियों के 'तमाशा' से मुंह मोड़ते जाते है और ऐसे नाटकों की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं, जिनका आधार या तो पौराणिक उपास्मानों 'यो हमारे प्राचीन इतिहास की घटना-मालाओं में मिलते है। iससे हमारी भारतीय सम्पता को अन्तस्मीद हमारे भारतीय । पादों, का बहुत ही स्थायी चित्र पठिो और माटक के . अभिनीत होने पर प्रेक्षकों ] के सदय-पटसपर खिष आता है। उपदेश मिलता है, पर उसमें पता नहीं होती। पेतावनी मिलती है, पर उसमें फर्फरता नहीं रहती । शिक्षा कालस मस्तिष्क के स्थान में उदय बन जाता है। नाटक का जातीय अम्युत्थान में एसा उपास्पान होता है। पर मारतीय,विशेषता हिन्दी टक उस स्थान की भोर पड़ रहा है।