हिंस्र निप्पुरता निदर्शन भेडिये,
विश्य में है यही करने के लिय।
समुद्र०--"देवी । करूणा और स्नेह के लिये तो रमणी जगत में ई है, किन्तु मनुष्य भी क्या वही हो जाय। "
पद्मा०--"चुप रहो समुद्र ! क्या क्रूरता ही मनुष्यता का परिचय है। एसी घाटूक्तियाँ भावी शासक को अच्छा नहीं बनाती ।"
(छलना का प्रवेश)
छलना०--"पद्मावती । यह सुम्हारा अविचार है । कुणीक का हृदय छोटी छोटी बातों में तोड़ देना, उसे डरा देना, उसकी मानसिक उन्नति में बाधा देना है।"
पचा-"माँ, यह क्या कह रही हो। कुणीक मेरा भाई है, मेरे सुखों की आशा है, मैं उमे कर्तव्य क्यों न बताऊँ ? क्या उमे चाटुकारों की चाल में फँससे देखें और कुछ न कहूँ।"
छलना०--"तो क्या तू उसे बोदा और डरपोक बनाना चाहती है ? क्या निर्बल हाथों में भी कोई राजदण्ड ग्रहण कर सकता है ?"
पद्मा०-"माँ, क्या कठोर और क्रूर हाथों से ही राम्य मुशा- सित होता है ? ऐसा विषवृक्ष लगाना क्या ठीक होगा ? अभी कुणीक किशोर है। यही समय सुशिक्षा का है। मैं अन्त करण से माई कुणीफ फी भलाई चाहती हूँ।
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