पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/३८

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अजातशत्रु ।
 

णाभरी दृष्टि से मेरी ओर देखा कि उसे छोड़ देते ही बना । अप राध क्षमा हो।"

अजात०--"हाँ-तो फिर मैं तुम्हारी चमड़ी उधेड़ता हूँ। समुद्र । ला तो मेरा कोड़ा ।"

समुद्र०--(कोड़ा लाफर देता है) "लीजिये । इसकी अच्छी पूजा कीजिए।"

पद्मावती--(कोड़ा पकड़ कर) "भाई कुणीक ! तुम इतने दिनों में ही बड़े निष्ठुर हो गये । भला उसे क्यों मारते हो?"

अजात०--"उसने मेरी आज्ञा क्यों नहीं मानी ?"

पद्मा०--"उसे मैने ही मना किया था, उसका क्या अपराध।"

समुद्र०--(धीरे से) "तभी तो उसको आजकल गर्व हो गया है। किसी की पात नहीं सुनता।"

अजात--"तो इस प्रकार तुम उसे मेरा अपमान करना सिखाती हो।"

पद्मा--"यह मेरा कर्त्तव्य है कि तुमको अभिशापों से यचाऊँ और अच्छी यातें सिखाऊँ । जा रे लुब्धक, जा, चला आ। कुमार जय मृगया खेलने जायें सो उनकी सेवा करना। निरीद जीवों को पकड़ फर निर्दयता सिम्याने में महायफ न होना ।"

अजात--"यह तुम्हारी बढ़ाबढ़ी मैं महन नहीं कर सकता?"

पद्मा--मानयो है सृष्टि करूणा के लिय, स्नेह का समाय भरने के लिय ।