पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/४२

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अजातशत्रु
 

वासवी--"यह मैं क्या देख रही हूँ। छलना ! यह गृहविद्रोह की आग तू क्यों जलाया चाहती है। राजपरिवार में क्या सुख अपेक्षित नहीं है--

"बच्चे बच्चों से खेले, हो स्नेह अदा उनके मनमें,

कुल लक्ष्मी हा मुदित, मग हा मगल उनक जीवन में,
बन्धुवर्ग हो सम्मानित, हो सयफ सुखी प्रणत अनुचर

शान्ति पूर्ण हो स्वामी का मन, ताम्पहणीय न हो क्या घर

छलना--"यह जिनको स्थान को नहीं मिलता उन्हें चाहिए । जो प्रभु हैं, जिन्ह पर्याप्त है, उन्हें किमी की क्या चिन्ता--जो व्यर्थ अपनी आत्मा को देवावे--

वासवी--"क्या तुम मग भी अपमान किया चाहती हा। पद्मा, सो जैसी मेरी वैसी ही तुम्हारी, उसे कहने का तुम्हे अधि कार है। किन्तु तुम तो मुझ से छोटी हो, शील और विनय का यह दुष्ट उदाहरण सिखा कर बच्चों की क्यों हानि कर रही हो ।'

छलना--(स्वागत) "मैं छोटी हूँ, यह अभिमान तुम्हारा अभी गया नहीं है।" (प्रकट) मैं छोटी हूँ, या बड़ी, किन्तु राजमाता हूँ। अजात को शिक्षा देने का मुझे अधिकार है । उमे रामाहोना है। यह मिस्त्रमगों का--जो अकर्मण्य होकर राज्य छोड़ कर दरिद्र दो गये हैं--उपदेश नहीं ग्रहण करन पावेगा।"

पद्मा०--"माँ, अब चलो ! यहाँ से चलो। नहीं-तो मैं ही जाती हूँ।"