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पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/४४

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अजातशत्रु। मय, रहस्यपूर्ण भाग्य का चिट्ठा समझाने का प्रयल करती है। किन्तु वह कब मानता है ? मनुष्य व्यर्थ महत्त्व की 'पाकामा में मरता है। अपनी नीची चिन्तु सुद परिस्थिति में उमे सतोप नहीं होता। नीचे से ऊँचे पदाना ही चाहता है। चाह फिर गिरे तो भी क्या ?" छलना-(प्रवेश करके ) "और नीचे के लोग वहीं रहें। ये मानो कुछ अधिकार नहीं रखते ? उपर याले हें चढ़ने भी देना नहीं चाहते " म. थिम्यमार--(चौफ कर ) "कौन छलना ?"1, छलना-"हा, महाराज ! मैं ही हूँ" - म० बिम्बमार--"तुम्हारी बात मैं नहीं समझ सका !" (छलना-"साधारण जीवों में भी उन्नति की चेष्टा दिम्बाई देती है। महाराज ! इमफी पकी चाह है। पदय के उपकरण है, एक म है भा हृदय सबको, उदय कहतु साधन ही घराबर है नहीं सय को। । उहे जप तुम दिवाकर एक मटे को चिढाते हो, . ,, फहो यह लोभ समता का सम्हा लेगा भला क्यो। । घठों की है छुटाई का उन्हें छोटा समझते हैं। मुक है, वा विनम स.ही उन खोटा समझसे है। . म. विम्बमार-"तय म