अजातशत्रु। पिने नियम तोड़ा है, उसीतरह राष्टभेद कर के क्या देश का नाश फराया चाहते हैं ? देवदत्त--"यह पुरानी मण्डली का गमचर है। समुद्र । युवगज से कहो कि इमका उपाय करें । यह विद्रोही है। इसका मुस्य यन्त्र होना चाहिये ।" जीवक-"ठहरो, मुझे कह लेने हो। मैं ऐमा सरपोफ नहीं हूँ कि जो यान तुम मे फहनी है वह मैं दमरों से कहूँ। मैं गजषु नका प्राचीन मेवक हूँ। सुम लोगों की यह फूट मन्त्रणा अच्छी प्रकार समझ रहा हूँ। इसका परिणाम कभी भी अच्छा नहीं। मुझे क्या डराते हो, मैं उन लोभियों में नहीं हूँ जो अनर्थफारी की 'भी सेवा फरफै अपने को धन्य सममें। मैं भो फल से महाराज विम्यमारकेपासर,गा । मैं, राज-सम्मान को भी घयतुच्छ समझता हूँ। फिन्तु सावधान, मगंध का अध पतन दूर नहीं है।" (नासार - सुदत्त०-(प्रवेश फरफे ) "आर्य ममुद्रवत्त जी ! कहिये, मेरे जाने का प्रयन्ध तो ठीक हो गया है न १ कोशल शीघ्र पहुँच 'जाना मेरे लिये आवश्यक है। महारानी तो भत्र आयेंगी नहीं ___ क्योंकि मगमनरेश ने वानप्रस्य पाश्रम का अवलम्बन लिया है 'फिर मैं ठहर कर क्या करूँ ?” ... सवत्तः–“किन्तु युवराज ने तो अभी प्रार्पको ठहरने के 'लिये फहा है ।
पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/५६
दिखावट