पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/७६

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यजातशत्रु। विरुद्धक-पिताजी ! यदि पमा हो तो मैं यह कहने में कोच न फलंगा कि युवराज को राज्यसचालन की शिक्षा देना महाराज का फर्सत्य है" __प्रसेनजित (उत्तेजित होकर ) "और अब तुम दूसरे शब्दों में उस शिक्षा को पाने का उद्योग कर रहे हो। क्या राज्याधिकार ऐसी प्रलोमन फी वस्तु है कि फर्त्तश्च और पितृभक्ति एकवार ही मुला दी जाय ? ___ विरुद्धफ पुत्र ययिं पिता से अपना अधिकार माँगे धो उममें दोपही क्या है ?" प्रसेनजित (और. मी उत्तेजित होकर) "वय अवश्य तीच रक का मिश्रण है। उम दिन, अघ तेरे नानिहाल में तेरे अपमानित होने की पात मैंने सुनी थी, सब मुझे विश्वास नहीं हुआ था, अब मुझे विश्वास हो गया कि शाक्मों के फयनानुसार तेरी माता अवश्य ही दामीपुत्री है। और तूं एक फैलुपित और हेयं सन्तान है। नहीं सो तू इस पवित्र फोशा की विश्वविशु वै । गाथा पर पानी फेर कर अपने पिता के माप उत्तर और प्रत्युचर न फरता। क्या इसी कोराल में रामचन्द्र और परारय फे 'सष्टश {न और पिता अपना उदाहरण नहीं छोड़ गये हैं ? क्या ऐसी दुराचारी भेपियों की तरह मयाना सन्तान अपने पिता मासामों मोदी यध न करेगी '" ।। । - मुदन-दयानिधे ! पालक का अपराध मार्जनीय है।'