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युग-प्रवर्तिका श्रीमती महादेवी वर्मा
के प्रति


दिये व्यंग्य के उत्तर रचनाओं से रचकर,
विदुषी रहीं विदूषक के समक्ष तुम तत्पर;
हिन्दी के विशाल मन्दिर की वीणा-वाणी,
स्फूर्ति-चेतना-रचना की प्रतिमा कल्याणी,
निकला जब 'नीहार' पड़ी चञ्चलता फीकी
खुली 'रश्मि' से मुख की श्रीयुग की युवती की,
प्रति उर सुरभित हुआ, 'नीरजा' से, निरभ्रनभ
शत-शत स्तुतियों से गूंजा 'यह सौरभ, सौरभ'।
'सान्ध्य गीत' गाते समर्थ कवियों ने सुस्वर,
वीणा पर, वेणु पर, तन्त्र पर और यन्त्र पर।
'यामा'-'दीपशिखा' के विशिखों के ज्यों मारे
अपल-चित्र हो गये लोग, 'चल चित्र' तुम्हारे
चला रहे हैं सहज शृङ्खला की कड़ियों से,
सजो, रँगो लेखनी-तूलिका की छड़ियों से।

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