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अतीत-स्मृति
 


परास्त करने के लिए देवता भी उसी नीति का अवलम्बन करते थे। इन्द्र ने वृत्रासुर को इसी तरह मारा था। इन्द्र का यह कार्य उस समय भी विशेष प्रशंसनीय न समझा गया था।

धीरे धीरे समय ने पलटा खाया और सभ्यता का प्रभाव अधिक पड़ने लगा। अतएव स्मृतियों और धर्म-शाखों ने धर्म-युद्ध ही का अधिक महत्व निश्चित किया। स्मृतियों में राज-धर्म के साथ युद्ध का घनिष्ट सम्बन्ध माना गया है। अर्थ-शास्त्र, (Political Economy) में भी युद्ध और शासन-शक्ति की वृद्धि के कारणों पर विचार किया गया है। मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियों में, महाभारत तथा कई एक पुराणों में, शुक्राचार्य, कामन्दक और कौटिल्य के ग्रन्थों में, युद्धविग्रह के तत्वों की खूब विवेचना की गई है। वह बड़े मारके की है। राजा को युद्ध से भूमि और शक्ति का लाम तो होता है, पर उसे हानि भी बहुत उठानी पड़ती है। अर्थ-शास्त्र और स्मृति-ग्रन्थ युद्ध को केवल राज-धर्म निभाने के लिए ही उपयुक्त समझते हैं। युद्ध से प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचे, इसलिए लड़ने वाले दोनों पक्षों को यथाशक्ति उद्योग करना पड़ता है। प्रजा से युद्ध का सम्बन्ध करना वे अनुचित समझते हैं।

महाभारत के शान्ति पर्व के अध्याय ५७ और ५८ में राजनीति तथा राज-धर्म का अच्छा विवेचन है। उससे पता चलता है कि प्राचीन काल में राजा के अस्तित्व, राजा के संरक्षण और शत्रु-मित्र के साथ सन्धि तथा विग्रह के लाभों को लोग अच्छी