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अतीत-स्मृति
 

याज्ञवल्क्य-स्मृति में भी इसी प्रकार कहा गया है-

य आहवेपु वध्यन्ते भूम्यर्थमपराङ्मुखाः।
अकूटैरायुधैर्यान्ति ते स्वर्ग योगिनो यथा॥
पदानि कृतुतुल्यानि भग्नेष्वपि निवर्तिनाम्।
राजा सुकृतिमादत्ते हतानां विपलायिनाम्॥
अ॰ १, श्लो॰ ३२४-३५५।

मतलव यह कि वर्जित अस्त्र-शस्त्रो से लड़कर जो रण-भूमि में शरीर छोड़ते है वे योगियों के सदृश स्वर्ग को चले जाते है। जो लोग अपनी सेना के नष्ट हो जाने या भाग आने पर रणक्षेत्र में डटे रहते है और आगे ही बढ़ते जाते है उन्हे पद पद पर यज्ञ का फल होता है। इसके विपरीत जो लोग भागकर मारे जाते हैं उनका सब पुण्य राजा को प्राप्त होता है। शुक्राचार्य का भी यही मत है। उनके मत में जो रण-क्षेत्र, मे लड़ते हुए मारा जाता है वह सीधे वर्ग को जाता है और जो भागता है वह संसार मे हेय, घृणित और नीच समझा जाता है। मरने पर उसे घोर नरक होता है।

शुक्रनीति की आज्ञा है कि स्त्री, बालक और गाय पर अत्याचार होता देखकर ब्राह्मण भी युद्ध करने लगे। ऐसे अवसर पर युद्ध करने से ब्राह्मण को पाप नहीं होता। इस नीति में यह भी लिखा है कि क्षत्रिय का बिस्तरे पर मरना पाप है। उसे रण-क्षेत्र ही में मरना चाहिए। रण-क्षेत्र में न मरने वाले के लिए खेद करना मूर्खता है।