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प्राचीन भारत में राज्याभिषेक
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किसी को किसी प्रकार की शिकायत का मौका न मिलता था। राजसूय-यज्ञादि में जितने मनुष्य निमन्त्रित होते थे उनका सारा खर्च सम्राट् की ओर से ही दिया जाता था। उनके रहने, खाने-पीने, मनोरजन आदि का सारा प्रबन्ध भी सम्राट के नियत किए हुए सम्बन्धी ही करते थे। बड़ी धूमधाम से उत्सव किया जाता था। सब कोई राजा के मिहमान होते थे।

अभिषेकक्रिया

इस प्रकार चुनाव हो चुकने पर, स्थिर नक्षत्र में, योग्य मुहूर्त आने पर, उस भाग्यशाली व्यक्ति को तिल, सरसों के अमिमंत्रित तेल से मालिश कर स्नान कराते थे। एक दिन पहले उसे सस्त्रीक उपवास करना पड़ता था। स्नान करके वह सब प्राणियों को अभयदान देता था । इन्द्र के निमित्त शान्ति की जाती थी। इसके बाद फिर सुगन्धित तेल से मर्दन करके वह स्नानागार में लाया जाता था। वहां पर्वत के ऊपर की मिट्टी से उसके सिर को, बांमी की मिट्टी से कानो को, देवस्थान की मिट्टी से मुख को, हाथी के दांतों से खुदी हुई मिट्टी से भुजाओं को, इन्द्र-धनुष के नीचे की मिट्टी से ग्रीवा को, राजाङ्गण को मिट्टी से हृदय को, गंगा-यमुना के संगम की मिट्टी से उदर को, तालाब की मिट्टी से पीठ को, नदी-तीर की मिट्टी से पसलियों को, गोशाला की मिट्टी से जघाओ को, गज-शाला की मिट्टी से जानु को, अश्वशाल की मिट्टी से चरणतलो को, मलते थे। तदनन्तर सारी मिट्टियों को मिलाकर समस्त शरीर को मलते थे। इसके बाद उसे सिंहासन