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अतीत-स्मृति
 


नहीं लगा सका। उसका श्रेय तिलक के लिये था, वह उनको आज प्राप्त हुआ। यदि इस बात का प्रमाणकर्त्ता कोई विलायती पंडित होता तो उसकी कीर्ति न जाने कहां कहां अब तक फैल गई होती। माननीय तिलक इस अर्द्धशिक्षित भारत के वासी हैं; इसलिए उनका यश उतना शीघ्र न प्रसारित होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने अपनी तीव्र बुद्धि और गम्भीर गवेषणा से एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तत्व का पता लगाया है। जो कोई उनके ग्रन्थ को पढ़ेगा वह अवश्य उनकी प्रशंशा करेगा। उनकी पुस्तक को पढ़ कर और उनके प्रकाण्ड परिश्रम का विचार करके, पढ़ने वाले के मन में एक अपूर्व भक्ति-भाव उदित होता है। ऐसे अनेक वैदिक मन्त्र हैं जिनका आशय ठीक ठीक समझ में नहीं आता। परन्तु तिलक महोदय के मत का प्रचार होने पर, उनकी पुस्तक से सम्बन्ध रखने वाले उन मन्त्रो का भाव सहज ही में स्पष्ट हो जायगा। पुस्तक-कर्त्ता ने इस पुस्तक के लिए बहुत कुछ सामग्री कारागार ही में एकत्रित कर ली थी। यह उनके लिये और भी प्रशंसा की बात है। एक प्रकार से यह अच्छा ही हुआ जो उनको राज-दण्ड मिला। यदि ऐसा न होता तो इस अज्ञातपूर्व वैदिक तत्व का उद्घाटन भी न होता। खेद की बात है कि ऐसा प्रकाण्ड पंडित, ऐसा वैदिक-तत्व दर्शी, ऐसा श्रमसहिष्णु, ऐसा गवेषणा-धुरन्धर विद्वान इस तरह विपत्ति जाल में फँसता रहे!

[मार्च १९०४