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अतीत-स्मृति
 

हैं जिनके उत्तर देना या जिन पर कुछ कहना हमने मुनासिब नहीं समझा। युधिष्ठिर के समय का निर्णय होना महत्व की बात है। इसी ख्याल से, प्रार्थना के रूप में, जो कुछ कहना था हमने कह दिया है। यदि और कोई ऐसी वैसी बात होती तो हम चुप रहने के सिवा और कुछ न कहते-

सत्यव्रत युधिष्ठिर के काल का निर्णय हो चुका। तीन खण्डों में उसकी समाप्ति हुई। अन्तिम, अर्थात् तीसरा खण्ड, २ एप्रिल के प्रयाग-समाचार मे निकला। २ मई तक हमने और राह देखी कि शायद इसके भी आगे कोई टीका-टिप्पणी निकले; परन्तु और कुछ नहीं निकला। बङ्किम बाबू के कृष्णचरित्र के प्रथम खण्ड के सातवें परिच्छेद का नाम है "पाण्डवों की ऐतिहासिकता।" उसी का अनुवाद देकर यह लेख-मालिका पूरी कर दी गई। लेख का अन्तिम फलांश यह है।

पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में, उपासना अर्थ के बोधक बासुदेवक और अर्जुनक शब्द की व्युत्पत्ति दी है। गोल्डस्टुकर साहब का मत है कि जब पाणिनि सूत्र बने थे तब गौतम बुध नहीं पैदा हुए थे। अर्थात् पाणिनि का काल ईसा के पहले छठी शताब्दी कहा जा सकता है। उन के मत में उस समय ब्राह्मण, आरण्यकोपनिषद् इत्यादि कुछ न थे और न आश्वलायन, सांख्यायन आदि का ही अभ्युदय हुआ था।

मोक्षमूलर के मत में ब्राह्मणों का समय ईसा के पहले १००० वर्ष है। अतएव बङ्किम बाबू ने पाणिनि का समय ईसा के पहले