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पृष्ठ:अदल-बदल.djvu/१०

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अब मैं यहां और विस्तार से इस गम्भीर विषय की व्याख्या करूंगा। स्त्री और पुरुष के शरीर की बनावट इस प्रकार की है कि दोनों को प्रतिक्षण एक-दूसरे का अभाव रहता है। स्त्री-शरीर में पुरुष का और पुरुष-शरीर में स्त्री का अभाव है। पुरुष का पुरुषत्व ही पुरुष-चिह्न है और उसका उदय स्त्री है। इसी प्रकार स्त्री का स्त्रीत्व ही स्त्री-चिह्न है और उसका उदय पुरुष है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि जगत् में स्त्री न हो तो समझिए कि किसी पुरुष में पुरुषत्व ही न रहे। इसी भांति पुरुष न हो तो स्त्री में स्त्रीत्व न रहे।

यह स्त्रीत्व और पुरुषत्व केवल शरीर ही में नहीं, अपितु जिस शरीर में आत्मा रमकर बैठी है उसमें भी स्त्रीभाव और पुरुषभाव उत्पन्न हो गया है। इसलिए जो भी स्त्री-पुरुष शरीर और आत्मा से इस प्रकार गुथकर एक हो गए हैं कि यथार्थ में अभिन्न हैं, वही पत्नी-पति हैं और ऐसी पत्नी कभी 'पति-घर' को 'पर-घर' नहीं कह सकती, न वह बिना पति के क्षणभर पृथक् रह सकती है। यही दशा पति की भी आप समझ सकते हैं।

परन्तु मैं प्रथम कह चुका हूं कि लाखों में विरले ही ऐसे स्त्री- पुरुष हैं, जो पत्नी-पति यथार्थ हैं। पृथ्वी में सच्चे प्रेमी का दर्जा सबसे ऊपर है। कहा जाता है कि सच्चा प्रेमी प्रेम-पात्र से अभिन्न रहता है, परन्तु मेरा कहना यह है कि दम्पति का दर्जा प्रेमी से बहुत बढ़कर है।

यहां मैं विवाह के गम्भीर अर्थ की थोड़ी व्याख्या करूंगा। विवाह---वि-वाह---विशेष सम्बन्ध। यह इसका शब्दार्थ है। यह विशेष सम्बन्ध स्त्रीत्व और पुरुषत्व का सम्बन्ध है, हृदय और मस्तिष्क का सम्बन्ध है। दो स्त्री-पुरुष परस्पर मिलते हैं, वे मिलते ही चले जाते हैं, अन्त में एक हो जाते हैं।

स्त्री जाति में माता सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु है, इसलिए