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१०६ :: अदल-बदल
 


का युग है। आप भी इस बात से इन्कार न कर सकेंगी कि जिन पति-पत्नियों में परस्पर एकता के भाव नहीं, उनका विच्छेद हो जाना ही सुखकर है।'

'मेरे विचार कुछ दूसरे ही हैं और वे मेरी शिक्षा और संस्कृति पर आधारित हैं। मैं विश्वास करती हूं कि पति-पत्नी का सम्बन्ध उसी प्रकार अटूट है जैसे माता और पुत्र का, पिता और पुत्र का, तथा अन्य सम्बन्धियों का। वह जो अपने पितृ-कुल को त्यागकर पति-कुल में आई है तो इधर-उधर भटकने के लिए नहीं, न ही अपनी जीवन मर्यादा समाप्त करने के लिए। रही एकता न रहने की बात, सो पिता-पुत्र, माता-पुत्र में भी बहुधा मतभेद होता है, लड़ाइयां होती हैं, मुकदमेबाजी होती हैं, बोलचाल भी बन्द रहती है, फिर भी यह नहीं होता कि वे अब माता-पिता या पुत्र-पुत्री नहीं रहे। कुछ और हो गए।'

'परन्तु पति-पत्नी की बात जुदा है, विमलादेवी।'

'निस्सन्देह, यह सम्बन्ध पिता-माता-पुत्र के सम्बन्ध से कहीं अधिक घनिष्ठ और गम्भीर है। पुत्र, माता-पिता के अंग से उत्पन्न होकर दिन-दिन दूर होता जाता है। पहले वह माता के गर्भ में रहता है, फिर उसकी गोद में, इसके बाद घर के आंगन में, पीछे आंगन के बाहर और तब सारे विश्व में वह घूमता है। परन्तु पत्नी दूर से पति के पास आती है, वह दिन-दिन निकट होती जाती है। उनके दो शरीर जब अति निकट होते हैं तब उससे तीसरा शरीर सन्तान के रूप में प्रकट होता है, जो दोनों के अखंड संयोग का मूर्ति-चिह्न है। अब आप समझ सकती हैं कि पति-पत्नी विच्छेद का प्रश्न उठ ही नहीं सकता।'

'तो आप क्या यह कहती हैं कि यदि पति-पत्नी दोनों के प्रकृति-स्वभाव न मिलें, और दोनों के जीवन भार स्वरूप हो जाएं तो भी वे परस्पर उसी हालत में रहें। क्या जीवन को सुखी