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१२८ :: अदल-बदल
 

फिर सिसक-सिसककर।

पश्चात्ताप तो उसे उसी क्षण से होने लगा था, जब डाक्टर ने बेमन से विवाह की स्वीकृति मालतीदेवी के सामने दी थी। अब उसका ध्यान रह-रहकर अपने सौम्य स्वभाव मास्टर साहब के मृदुल और अक्रोध स्वभाव पर जाता था। उसे बोध होने लगा कि मैंने अपनी मूर्खता से अपने लिए दुर्भाग्य बुलाया।

एक दिन उसे प्रतीत हुआ कि डाक्टर उसे कुछ खाने की दवा देने वाले हैं। वह संदेह और भय से कांप उठी। उसे अपने प्राणनाश की भी चिन्ता उत्पन्न हो उठी। शाम को डाक्टर जब क्लब चले गए, उसने आत्मविश्वास पूरक साहस किया, और उस पर-घर को त्यागने की तैयारी की। उसने चादर ओढ़ी और शरीर को सावधानी से आच्छादित कर घर से बाहर हो गई।

दीवाली के दीये घरों में जल रहे थे, पर वह उनके प्रकाश से बचती हुई अंधकार में चलती ही गई।

२०

मास्टर साहब अपने घर में दीये जला, प्रभा को खिला-पिला बहुत-सी वेदना, बहुत-सी व्यथा हृदय में भरे बैठे थे। बालिका कह रही थी---बाबूजी! अम्मा कब आएंगी?

'आएगी बेटी, आएगी!'

'तुम तो रोज यही कहते हो। तुम झूठ बोलते हो बाबूजी।'

'झूठ नहीं बेटी, आएगी।'

'तो वह मुझे छोड़कर चली क्यों गईं?'