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अदल-बदल :: ११७
 

भूख की ज्वाला इधर-उधर देखने ही नहीं देती। जो सुविधा से मिला, उसे खाया। पाप का व्यवसाय ही हिंस्र है, वहां कोमल भावुक जीवन कहां? स्त्रियों का सौभाग्य-दुर्भाग्य पुरुषों के सौभाग्य-दुर्भाग्य के समान क्षण में बदलने वाला नहीं।

तीन वर्ष बीत गए।

आंधी शान्त हो चुकी थी। मुर्झाए हुए पत्ते बिखर गए थे। डाक्टर का प्रेमभाव अब गायब था। अब वे उसे पूर्व की भांति क्लब में ले जाने में आना-कानी करते थे। उनका यह विवाह प्रेमजन्य नहीं, वासनामूलक था। माया का सारा ही मान बिखर चुका था। वह जो सुखी संसार देखना चाहती थी, वह उससे दिन-दिन दूर होता जा रहा था। वहां अब वेदना और सूनापन था।

उसे एक दिन अचानक ऐसा प्रतीत हुआ कि उसने जो लिया है उसका भार कुछ बढ़ रहा है। थोड़े दिनों में संदेह मिट गया। उसने जो दिया था, वह सब बट्टेखाते गया, और उसने जो लिया उसके भार से वह एक दिन अधमरी हो गई।

उसने डाक्टर से कहा-

'यह बोझ बढ़ता ही जा रहा है। यह तुम्हारा प्रेमोपहार है।'

डाक्टर ने सिगरेट के धुएं का बादल बनाते हुए कहा-'चिन्ता न करो, चुटकी बजाते इस बोझ को कहीं कूड़े के ढेर में फेंक दिया जाएगा।'

पर बोझ उसे ढोना पड़ा। कूड़े के ढेर में नहीं फेंका गया। वह उसे ढोते-ढोते थक गई, पीली पड़ गई, कमजोर हो गई।

डाक्टर से जब बोझे की बात चलती, वह झुंझला उठता, खीझ उठता, डांट भी देता। उसे रोना पड़ा-पहले छिपकर,