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१२२::अदल - बदल
 

अनदेखा कर तेज़ी से एक अंधेरी गली की ओर दौड़ चले।

'चरण-रज दो मालिक!'

'वाहियात बात है, प्रभा की मां।'

'अरे देवता, चरण-रज दो, ओ पतितपावन, ओ अशरणशरण, ओ दीनदयाल, चरण-रज दो।'

'तुम पागल हो, प्रभा की मां।'

'पागल हो जाऊंगी। तीन साल में दुनिया देख ली, दुनिया समझ डाली; पर इस अन्धी ने तुम्हें न देखा, तुम्हें न समझा।'

'यह तुम फालतू बकबक करती रहोगी तो फिर ज्वर हो जाने का भय है। बिटिया प्रभा, अपनी मां को थोड़ा दूध तो दे।'

'मै भैया को देखूगी, बाबूजी।'

माया ने पुत्री को छाती से लगाकर कहा, 'मेरी बच्ची, अपने बाप की बेटी है-इस पतिता मां को छू दे जिससे वह पापमुक्त हो जाए।'

'नाहक बिटिया को परेशान मत करो, प्रभा की मां।'

'हाय, पर मैं तुम्हें मुंह कैसे दिखाऊंगी?'

'प्रभा की मां, दुनिया में सब कुछ होता है । तुमने इतना कष्ट पाया है, अब समझ गई हो। उन सब बातों को याद करने से क्या होगा? जो होना था हुआ, अब आगे की सुध लो। हां, अब मुझे तनखा साठ रुपये मिल रही है, प्रभा की मां। और ट्यूशन से भी तीस-चालीस पीट लाता हं। और एक चीज देखो, प्रभा ने खुद पसन्द करके अपनी अम्मा के लिए खरीदी थी, उस दिवाली को।

वे एक नवयुवक की भांति उत्साहित हो उठे, बक्स से एक रेशमी साड़ी निकाली और माया के हाथ में देकर कहा–'तनिक देखो तो।'