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मरम्मत :: १२७
 

'अब मैं तुझसे मुंहजोरी करूं कि काम?'

'काम करो। बेटियां पेट से थोड़े ही पैदा होती हैं। घूरे पर से उठाकर लाई जाती हैं। उनकी प्रतिष्ठा क्या, इज्जत क्या, जीवन क्या? मर्द दुनिया में बड़ी चीज है। उनका सर्वत्र स्वागत है।'

रजनी रूठकर शाल को अच्छी तरह लपेटकर दूसरी ओर मुंह करके पड़ी रही, गृहिणी बकझक करती चली गईं।

उनका नाम था राजेन्द्र और मित्र का दिलीप। दोनों मित्र एम० ए० फाइनल में पढ़ रहे थे। नौ बजते-बजते दोनों मित्रों को लेकर फिटिन द्वार पर आ लगी। घर में जो दौड़-धूप थी वह और भी बढ़ गई। पिता को प्रणाम कर राजेन्द्र मित्र के साथ घर में आए। माता ने देखा तो दौड़कर ऐसे लपकी जैसे गाय बछड़े को देखकर लपकती है। अपने पुत्र को छाती से लगा, अश्रु-मोचन किया। मुख, सिर, पीठ पर हाथ फेरा, पत्र न भेजने के, अम्मा को भूल जाने के दो-चार उलाहने दिए। राजेन्द्र ने सबके बदले में हंसकर कहा---'देखो अम्मा, इस बार मैंने खूब दूध-मलाई खाई है, मैं कितना तगड़ा हो आया हूं। इस दिलीप को तो मैं यूं ही उठाकर फेंक सकता हूं।'

गृहिणी ने इतनी देर बाद पुत्र के मित्र को देखा। दिलीप ने प्रणाम किया, गृहिणी ने आशीर्वाद दिया। इसके बाद उन्होंने कहा-'बैठक में चलकर थोड़ा पानी पी लो, पीछे और बातें होंगी।

राजेन्द्र ने पूछा---'वह लोमड़ी कहां है...रजनी?' वह ठहाका मा रकर हंस दिया---'आओ दिलीप, मैं तुम्हें लोमड़ी दिखाऊं।' कहकर उस ने मित्र का हाथ खींच लिया। दोनों जीने पर चढ़ गए। गृहिणी रसोई में चली गईं।

राजेन्द्र ने रजनी की कोठरी के द्वार पर खड़े होकर देखा वह