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१२८ :: अदल-बदल
 


मुंह फुलाए कुर्सी पर बैठी है। घर के आनन्द-कोलाहल से उसे जा विरक्ति हो रही थी वह अभी भी उसके मुख पर थी। अब एका-एक भाई और उसके मित्र को भीतर आते देखकर उठ खड़ी हुई। उसने मुस्कराकर भाई को प्रणाम किया।

राजेन्द्र ने आगे बढ़कर उसके दोनों कंधे झकझोर डाले, फिर दिलीप से कहा--'दिलीप, यही हमारी लोमड़ी है। इसके सब गुण तुमको अभी मालूम नहीं। सोने में कुम्भकरण, खाने में भीमसेन, लड़ने में सूर्पनखा और पढ़ने में बण्टाढार! पर न जाने कैसे बी० ए० में पहुंच गई। इस साल यह बी० ए० फाइनल में जा रही है। क्लास में सदा प्रथम होकर इनाम पाती रही है।'

दिलीप ने देखा एक चम्पकवर्णी सुकुमार किशोरी बालिका जिसका अल्हड़पन उसके अस्तव्यस्त बालों से स्पष्ट हो रहा है, राजेन्द्र ने कैसी कदर्प व्याख्या की है। भाई-बहिन का दुलार भी बड़ा दुर्गम है। वह शायद गाली-गुफता धौल-धप्पा से ही ठीक-ठीक अमल में लाया जा सकता है।

दिलीप आश्चर्यचकित होकर रजनी को देखकर मुस्करा रहा था। उसे कुछ भी बोलने की सुविधा न देकर राजेन्द्र ने रजनी की ओर देखकर कहा–-'और यह महाशय, मेरे सहपाठी, कहना चाहिए मेरे शिष्य हैं। रसगुल्ला खिलाने और रसगुल्ले से भी मीठी गप्पें उड़ाने में एक हैं। जैसी तू पक्की लोमड़ी है, वैसे ही यह पक्के गधे हैं। मगर यूनिवर्सिटी की डिग्री तो लिए ही जाते हैं, खाने-पीने में पूरे राक्षस हैं। ज़रा बन्दोबस्त ठीक-ठीक रखना।'

राजेन्द्र ही-ही करके हंसने लगा। फिर उसने दिलीप के कंधे पर हाथ रखकर कहा--'दिलीप, रज्जी हम लोगों की बहिन है, ज्यादा शिष्टाचार की जरूरत नहीं, बैठो और बेतकल्लुफ 'तुन' कहकर बातचीत करो।'

जब तक राजेन्द्र कहता रहा, रजनी चुपचाप सिर नीचा किए