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१३० :: अदल-बदल
 


चाहती हूं।'

'किसलिए?'

'इसलिए कि पुरुष क्यों सब बातों में सर्वश्रेष्ठ बनते हैं, स्त्रियां क्यों उनसे हीन समझी जाती हैं।'

दिलीप अब तक चुप बैठा था, अब वह जोश में आकर हथेली पर मुक्का मारकर बोला--'ब्रेवो, रज्जी, मैं तुम्हारे साथ हूं।'

'मगर मैं तुम दोनों का मुकाबला करने को तैयार हूं। पुरुष श्रेष्ठ हैं और श्रेष्ठ रहेंगे।' राजेन्द्र ने पैंतरा बदलकर नकली क्रोध और गम्भीरता से कहा। फिर उसने ज़रा हंसकर कहा--'मगर यह विद्रोह उठा कैसे रजनी?'

रजनी ने नथुने फुला और भौंहों में बल डालकर कहा--'कल से अम्मा ने और बाबूजी ने घर भर को सिर पर उठा रखा है। पचास तो पकवान बनाए हैं, रातभर खटखट रही। नौकर- चाकरों की नाक में दम। भैया आ रहे हैं, भैया आ रहे हैं। मैं भी तो आती हूं, तब तो कोई कुछ नहीं करता। तुम पुरुष लोगों की सब जगह प्रधानता है, सब जगह इज्जत है। मैं इसे सहन नहीं करूंगी।' रजनी ने खूब जोर और उबाल में आकर यह बात कही।

सब कैफियत सुनकर राजेन्द्र हंसते-हंसते लोटपोट हो गया। उसने कहा--'ठहर, मैं अभी तेरा विद्रोह दमन करता हूं।'

वह दौड़कर नीचे गया और क्षणभर ही में एक बड़ा-सा बंडल ला, उसे खोल उसमें से साड़ियां, कंधे, लेवेंडर, सेंट, क्रीम और न जाने क्या-क्या निकाल-निकालकर रजनी पर फेंकने लगा। यह सब देख रजनी खिलखिलाकर हंस पड़ी। विद्रोह दमन हो गया।

दुलारी जलपान ले आई। तीनों बैठकर खाने लगे। राजेन्द्र ने कहा--'कहो, विद्रोह कैसे मजे में दमन हुआ!'

'वह फिर भड़क उठेगा।'

'वह फिर दमन कर दिया जाएगा।'