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मरम्मत :: १३१
 

'पर इस दमन में कितना गोला-बारूद खर्च होता है।'

'दमन करके शान भी कितनी बनती है।'

एक बार फिर तीनों प्राणी ठहाका मारकर हंस दिए। जलपान समाप्त हो गया।

दिलीप बाबू और रजनी में बड़ी जल्दी पट गई। राजेन्द्र बाबू तो दिनभर गांव की जमींदारी की, खेतों की मटरगश्त लगाते और दिलीप महाशय लाइब्रेरी में आरामकुर्सी पर रजनी की प्रतीक्षा में पड़े रहते। अवकाश पाते ही रजनी वहां पहुंच जाती। उसके पहुंचते ही बड़े जोर-शोर से किसी सामाजिक विषय पर विवाद छिड़ जाता, पर सबसे प्रधान विषय होता था स्त्री स्वतन्त्रता। इस विषय पर दिलीप महाशय रजनी का विरोध नहीं करते थे, प्रश्रय देते थे और यदि बीच में राजेन्द्र आ पड़ते तो उनसे जब रजनी का प्रबल वाग्युद्ध छिड़ता तो दिलीप सदैव रजनी को ही बढ़ावा देते रहते। तब क्या राजेन्द्र दकियानूसी विचारों के थे? नहीं वे तो केवल विवाद के लिए विवाद करते थे। भाई-बहिन में प्रगाढ़ प्रेम था। रजनी को राजेन्द्र प्राण से बढ़कर मानते। यह बात दिलीप के मन में घर कर गई। राजेन्द्र एक सच्चे उदार और पवित्र विचारों के युवक थे, और रजनी एक चरित्रवती सतेज बालिका थी। शिक्षा से उसका हृदय उत्फुल्ल था,उसके उज्ज्वल मस्तक पर प्रतिभा का तेज था। वह जैसे भाई के सामने निस्संकोच भाव से आती, जाती, हंसती, रूठती, भागती, दौड़ती, बहस करती और बिगड़ती थी, उसी भांति दिलीप के सामने भी। वह यह बात भूल गई थी कि दिलीप कोई बाहर का आदमी है।

परन्तु दिलीप के रक्त की उष्णता बढ़ रही थी। उसकी आंखों में गुलाबी रंग आ रहा था। वह अधिक-से-अधिक रजनी