पत्र को पढ़कर रजनी पहले तो तनिक हंसी। फिर तुरन्त ही क्रोध से थर-थर कांपने लगी। पत्र में कवित्वपूर्ण भाषा में प्रेम के ज्वार का वर्णन किया गया था। एकाएक उनके मन में जो प्रेम रजनी के लिए उदय हुआ, वे रजनी के प्रति कितने आकृष्ट हुए यह सब उसमें लिखा था। वे रजनी के बिना जीवित नहीं रह सकेंगे। विरक्त हो जाएंगे या जहर खा लेंगे, यह भी लिखा था। अन्त में हाथ जोड़कर सब बातें गोपनीय रखने की प्रार्थना भी की
थी।
पत्र पढ़ने पर रजनी के होंठ घृणा से सिकुड़ गए। वह सोचने लगी--यह पुरुष जाति जो अपने को स्त्रियों से जन्मतः श्रेष्ठ सम-झती है, कितनी पतित है। इन पढ़े-लिखे लोगों में भी आत्म- सम्मान नहीं। ये अपनी ही दृष्टि में गिरे हुए हैं। रजनी ने पत्र फेंक दिया। वह पलंग पर लेटकर चुपचाप बहुत-सी बातों पर विचार करने लगी।
संध्या होने पर दिलीप महाशय आसामी मूंगे का कुर्ता पहनकर घूमने को निकले। रजनी ने देखा उनका मुंह सूख रहा है, और आंखें ऊपर नहीं उठ रही हैं। वे अपराधी की भांति चुपचाप खिसक जाना चाह रहे हैं।
रजनी ने पुकारकर कहा--'कहां चले दिलीप बाबू, अभी तो बहुत धूप है। संध्या को ज़रा जल्दी लौटिएगा, हम लोग सिनेमा चलेंगे।'
रजनी की बात सुनकर ये रजनी के भाई के मित्र सभ्य महाशय ऐसे हरे हो गए, जैसे वर्षा के छींटे पड़ने से मुर्झाए हुए पौधे खिल जाते हैं। उन्होंने एक बांकी अदा से खड़े होकर ताकते हुए कुछ कहा। उसे रजनी ने सुना नहीं, वह अपना तीर फेंककर चली गई।