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१३६:: अदल-बदल
 


रजनी ने विषम साहस का काम किया। दिलीप महाशय झटपट ही लौट आए। आकर उन्होंने उत्साहपूर्ण वाणी में रजनी से कहा--'रजनी, मैं रिजर्व बॉक्स के दो टिकट खरीद लाया हूं।'

रजनी ने घृणा के भाव को दबाकर हंस दिया।

भोजन के बाद रजनी और दिलीप दोनों ही सिनेमा देखने चल दिए। गृहिणी ने कुछ भी विरोध न किया। सिनेमाघर निकट ही था, अतः पैदल ही रजनी चल दी। रास्ते में बातचीत कहीं नहीं हुई, मालूम होता था दोनों ही योद्धा अपने-अपने पैंतरे सोच रहे थे। रजनी इस उद्धत युवक को ठीक कर देना चाहती थी और दिलीप प्रेम के दलदल में बुरी तरह फंसा था। रातभर और दिनभर में जो-जो बातें उसने सोची थीं, वे अब याद नहीं आ रही थीं। कैसे कहां से शूरू किया जाए, यही प्रश्न सम्मुख था। पत्र पढ़कर भी रजनी बिगड़ी नहीं, भण्डाफोड़ भी नहीं किया, उल्टे अकेली सिनेमा देखने आई है। अब फिर सन्देह क्या और सोच क्या, अब तो सारा प्रेम उंड़ेल देना चाहिए। सुविधा यह थी कि रजनी अंग्रेजी पढ़ी स्त्री थी। शेक्सपियर, गेटे, टेनीसन और वायरन के भावपूर्ण सभी प्रेम-सन्दर्भो को समझ सकती थी पर कठिनाई तो यह थी कि शुरू कैसे और कहां से किया जाए।

रजनी ने कनखियों से देखा, दिलीप महाशय का मुंह सूख रहा है, पैर लड़खड़ा रहे हैं। रजनी ने मुस्कराकर कहा--'क्या आपको बुखार चढ़ रहा है, मिस्टर? मिस्टर दलीप, आपके पैर डगमगा रहे हैं, मुंह सूख रहा है।

दिलीप ने बड़ी कठिनता से हंसकर कहा--'नहीं नहीं, मैं तो बहुत अच्छा हूं।'

'अच्छी बात है।' कहकर रजनी ने लम्बे-लम्बे डग बढ़ाए।

बॉक्स में बैठकर भी कुछ देर दोनों चुप रहे। खेल शुरू हो गया था। शायद खेल कोई प्रसद्धि न था, इसलिए भीड़भाड़ बिल्कुल न