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१४० :: अदल-बदल
 

सकते हैं?' रजनी ने यह कहकर दिलीप के दोनों कान पकड़कर खींच लिए और तड़ातड़ पांच-सात तमाचे उसके मुंह पर रसीद करके कहा---'कहो, प्रेम अब कहां है? मुझ-सी लड़की कहीं दुनिया में है या नहीं?'

'रजनी देवी, मैं आपकी शरण हूं।'

'अच्छा, अच्छा! मगर तुम तो शायद मेरे बिना जी भी नहीं सकोगे! जाओ, कुएं-नदी में डूब मरो। क्या तुम भैया को मुंह दिखा सकोगे?'

दिलीप चुपचाप धरती पर बैठा रहा।

रजनी ने लात मारकर कहा---'बोल रे बदमाश, बोल!'

दिलीप ने गिड़गिड़ाकर कहा---'धीरे, रजनी देवी, लोग सुन लेंगे तो यहां भीड़ हो जाएगी।'

रजनी ने कहना शुरू किया---'कुछ परवाह नहीं। हां, तुम क्या चाहते हो कि स्त्रियों को तुम इसी प्रकार फुसलाओ? वे या तो पर्दे में घुग्घू बनी बैठी रहें और यदि स्वाधीन वायु में जीना चाहें तो तुम्हारे जैसे सांपों से वे डसी जाएं? क्यों? भैया के साथ विवाद में तुम सदा मेरा पक्ष लेते थे सो इसीलिए? कहो? तुम समझते हो भैया उदार हैं, नहीं जानते उन्होंने मेरा, मेरी आत्मा का निर्माण किया है। यह उन्हीं का साहस था कि तुम्हें अकपट भाव से उसी भांति मेरे सम्मुख उपस्थित किया जिस भांति वे स्वयं मेरे सम्मुख आते हैं। पर तुम, नीच, लम्पट, दो दिन में ही बहिन के समान अपने मित्र की बहिन से प्रेम करने लगे! कहो, तुम्हारे घर कोई वहिन है या नहीं? इसी भांति तुम उसे पृथ्वी की अतिद्वीय स्त्री कहते हो?'

दिलीप महाशय के शरीर में रक्त की गति रुक रही थी, बोल नहीं निकलता था। उन्होंने रजनी के पैर छूकर कहा---'आह, चुप रहो, कोई सुन लेगा।'