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१४२ :: अदल-बदल
 

'मैं कसम खाता हूं।'

'किसकी?'

'आपके चरणों की।'

'धुत् खबरदार! इतना साहस न करना।'

'परमेश्वर की।'

'नास्तिक! तुम्हारे परमेश्वर का भरोसा!'

'अपनी माता की, पिता की।'

'नहीं, मैं नहीं विश्वास करती कि तुम माता-पिता की इज्जत करते होगे।'

'आह देवी, इतना पतित न समझो।'

'तुम बड़े पतित हो।'

'तब जिसकी कहो उसकी कसम खाऊं।'

'अपने प्राणों की कसम खाओ।'

'मैं अपने प्राणों की कसम खाता हूं कि भविष्य में मैं बहिनों के प्रति कभी अपवित्र भाव नहीं आने दूंगा।'

'अच्छी बात है। फिलहाल मैं तुम्हें क्षमा करती हूं, कुर्सी पर बैठ जाओ।' रजनी ने कठिनाई से अपने होंठों की कोर में उमड़ती हंसी को रोका।

जान बची, लाखों पाए, दिलीप महाशय कुर्सी पर धम से बैठ गए। खेल चल रहा था, बाजे बज रहे थे, कोई गाना हो रहा था, पर्दे पर धमा-चौकड़ी हो रही थी, इस धूम-धाम ने और पीछे की सीट के सन्नाटे ने इस 'रजनी काण्ड' को ओर किसीका ध्यान आकृष्ट नहीं होने दिया। थोड़ी देर में इन्टरवैल हो गया, बत्तियां जल गई। प्रकाश हो गया।

रजनी ने कहा--'मैं घर जाना चाहती हूं दिलीप बाबू, आप चाहें तो यहीं ठहर सकते हैं।'

दिलीप ने आज्ञाकारी नौकर की भांति खड़े होकर कहा--