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१६८ :: अदल-बदल
 


जो पुरुष-रूपी दृढ़ वृक्ष के सहारे लिपटी रहती है। पुरुष स्त्री के लिए आदर्श वस्तु है। स्त्रियां हर बात में पुरुष को श्रेष्ठ और आदर्श मानती हैं। पर पुरुष यदि आदर्श से इतने गिर जाएं, तो फिर जीवन के एकांत क्षण भी विनोद और सरस जीवन से रहित हो जाएं।'

'तुम सच कहती हो कुमुद। परन्तु इसी युक्ति के आधार पर मैं कहता हूं कि तुम अपराधिनी नहीं। यदि तुमने अपने दाम्पत्य- परिधि के विनोद में उस बालिका को सम्मिलित किया, तो इसमें तुम्हारा दोष न था। तुम मेरी पत्नी हो, यह मुझे समझना चाहिए था। वह तुम्हारी सखी है--उसकी मर्यादा का पालन तो मुझे करना था। कुमुद, मैं समझ गया। पतित मैं हूं। पाप तो मैंने किया है, परन्तु वह तुम्हें पापिन समझेगी।

'वह यही समझेगी कि यह चरित्रहीन स्त्री परायी बहू-बेटियों को सहेली बनाकर अपने पति से संश्लिष्ट कराती है। हाय, मैं यह कैसे सुन, सह सकूंगा कुमुद?'

'वही तो स्वामी। उत्तम है, तुम मेरा प्राण हरण करके स्वयं भी आत्मघात कर लो। पिस्तौल में तीन गोलियां हैं।'

कुछ देर राजेश्वर स्तब्ध बैठे रहे। इसके बाद उन्होंने कहा-- 'नहीं कुमुद, यह ठीक दण्ड न होगा। हमें प्राणनाश न करना चाहिए। क्या तुम विश्वास करती हो कि मेरी प्रवृत्ति बदल गई है। तुम्हारी सखी के प्रति मेरे भाव अब क्या हैं, यह भी जानती हो?

'हां।'

'और सदैव आजन्म संसार-भर की स्त्रियों के प्रति मेरे क्या भाव रहेंगे, यह भी समझ गई?

'समझ गई।'

'प्रिये, इस पाप का हम दोनों ही को प्रायश्चित करना