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१७० :: अदल-बदल
 

'मैं बना लूंगी। परन्तु पहले इधर देखो।' उसने थाल की ओर इशारा किया।

'यह क्या है री?'

उसने थाल पर से आंचल हटाया। उसमें रोली, गुलाल, रंग और मिठाई थी। उसने लज्जा से लाल चेहरे को ऊपर उठाकर कहा--'मैं जीजाजी से होली खेलने आई हूं।'

'पागल हुई है क्या?'

'जो समझो। उन्हें बुला दो न।'

'इसकी जरूरत नहीं है, तू बैठ।'

'मैं स्वयं बुला लाती हूं।'

'नहीं, वह नहीं हो सकता।' कुमुद ने अत्यन्त रूखे स्वर में कहा। किशोरी की आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे। वह उसी भांति थाल लिए खड़ी रही।

उसकी आंखों में आंसू देख कुमुद रसोई छोड़, उठकर उसके पास आई। इसके आंसू पोंछकर कहा--'अरे, रोती क्यों है री पगली!'

'मैं होली खेलकर जाऊंगी। उस दिन तुमने क्या कहा था, जानती हो?' कुमुद ने क्षणभर किशोरी की ओर देखा, उसकी आंखें भर आईं। वह बिना उससे कुछ कहे राजेश्वर को बुला लाई। भीतर आकर राजेश्वर ने देखा, किशोरी चुपचाप थाल गोद में लिए खड़ी है। उसको शोभा, ओस से भीगे गुलाब के समान थी। उन्होंने मुस्कराकर कहा--'मामला क्या है?' बेवक्त की तलबी क्यों?'

'आपकी साली साहिबा होली खेलने आई हैं। जूता उतारकर भीतर आइए।'

राजेश्वर भीतर आकर चौकी पर बैठ गए। किशोरी ने सामने बैठ, थाल चौकी पर रख उनके माथे पर गुलाल लगा,