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पृष्ठ:अदल-बदल.djvu/२०

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२२::अदल-बदल
 

'चालीस ही पाता हूं, ज्यादा कहां से मिलते?'

'अब इन चालीस में क्या करूं? ओढूं या बिछाऊ? कहती हूं, छोड़ दो इस मास्टरी की नौकरी को, छदाम भी तो कार की आमदनी नहीं है। तुम्हारे ही मिलने वाले तो हैं वे बाबू तोताराम ---रेल में बाबू हो गए हैं। हर वक्त घर भरा-पूरा रहता है। घी में घी, चीनी में चीनी, कपड़ा-लत्ता, और दफ्तर के दस बुली चपरासी----हाजिरी भुगताते हैं वह जुदा। वे क्या तुमसे ज्यादा पढ़े हैं? क्यों नहीं रेल-बाबू हो जाते?'

'वे सब तो गोदाम से माल चुराकर लाते हैं प्रभा की मां। मुझसे तो चोरी हो नहीं सकती। तनखाह जो मिलती है, उसीमें गुजर-बसर करनी होगी।

'करनी होगी, तुमने तो कह दिया। पर इस महंगाई के जमाने में कैसे?

'इससे भी कम में गुज़र करते हैं लोग प्रभा की मां।'

'वे होंगे कमीन, नीच। मैं ऐसे छोटे घर की बेटी नहीं हूं।'

'पर अपनी औकात के मुताबिक ही तो सबको अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए। इसमें छोटे-बड़े घर की क्या बात है? अमीर आदमी ही बड़े आदमी नहीं होते, प्रभा की मां।'

'ना, बड़े आदमी तो तुम हो, जो अपनी जोरू को रोटी-कपड़ा भी नहीं जुटा सकते। फिर तुम्हें ऐसी ही किसी कछारिन-महरिन से ब्याह करना चाहिए था। तुम्हारे घर का धन्धा भी करती, इधर-उधर चौका-बरतन करके कुछ कमा भी लाती। बी० ए० एम० ए० होते तो वह भी बी० ए०एम० ए० आ जाती और दोनों ही बाहर मजे करते। क्या जरूरत थी गृहस्थ बसाने की?'

मास्टर साहब चुप हो गए। वे पत्नी से विवाद करना नहीं चाहते थे। कुछ ठहरकर उन्होंने कहा--'जाने दो प्रभा की मां, आज झगड़ा मत करो।' वे थकित भाव से उठे, अपने हाथ से एक