गिलास पानी उड़ेला और पीकर चुपचाप कोट पहनने लगे। वे जानते थे कि आज चाय नहीं मिलेगी। उन्हें ट्यूशन पर जाना था।
माया ने कहा---'जल्दी आना, और टयूशन के रुपये भी लेते आना।'
मास्टरजी ने विवाद नहीं बढ़ाया। उन्होंने धीरे से कहा--'अच्छा!' और घर से बाहर हो गए।
बहुत रात बीते जब वे घर लौटे तो घर में खूब चहल-पहल हो रही थी। माया की सखी-सहेलियां सजी-धजी गा-बजा रही थीं। अभी उनका खाना-पीना नहीं हुआ था। माया ने बहुत-सा सामान बाजार से मंगा लिया था। पूड़ियां तली जा रही थीं और घी की सौंधी महक घर में फैल रही थी।
पति के लोट आने पर माया ने ध्यान नहीं दिया। वह अपनी सहेलियों की आवभगत में लगी रही। मास्टर साहब बहुत देर तक अपने कमरे में पलंग पर बैठे माया के आने और भोजन करने की प्रतीक्षा करते रहे, और न जाने कब सो गए।
प्रातः जागने पर माया ने पति से पूछा---'रात को भूखे ही सो रहे तुम, खाना नही खाया?'
'कहां, तुम काम में लगी थीं, मुझे पड़ते ही नींद आई तो फिर आंख ही नहीं खुली।'
'मैं तो पहले ही जानती थी कि बिना इस दासी के लाए तुम खा नहीं सकते। रोज ही चाकरी बजाती हूं। एक दिन मैं तनिक अपनी मिलने वालियों में फंस गई तो रूठकर भूखे ही सो रहे। सो एक बार नहीं सौ बार सो रहो, यहां किसीकी धौंस नहीं सहने वाले हैं।'
'नहीं प्रभा की मां, इसमें धौंस की क्या बात है? मुझे नींद आ ही गई।'