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अदल-बदल :: २७
 

उदय हुआ है। तुम स्वाधीन जीवन व्यतीत करो। जीवन बहुत बड़ी चीज है, उसे यों ही बर्वाद नहीं किया जा सकता।

'इन पुरुषों की प्रभुता का जुआ हमें अपने कधे पर से उतार फेंकना होगा, हमें स्वतन्त्र होना होगा। हम भी मनुष्य हैं--पुरुषों की भांति। कोई कारण नहीं जो हम उनके लिए घर-गिरस्ती करें, उनके लिए बच्चे पैदा करें और जीवनभर उनकी गुलामी करती हुई मर जाएं!'

'यही मैं कहती हूं और यही चाहती भी हूं, पर समझ नहीं पा रही कि हूं कैसे अगला कदम उठाऊं।'

'तुम आजाद महिला-संघ की सदस्या हो। तुम्हारे बिचार बड़े सुन्दर हैं, संघ तुम्हें सब तरह से मदद करेगा। वह तुम्हें जीवन देगा, मुक्ति देगा। जिसका हमें जन्मसिद्ध अधिकार है, वह हमें संघ में मिल सकता है।'

'देखिए, वे स्कूल चले जाते हैं, तो मैं दिनभर घर में पड़ी-पड़ी क्या उनका इन्तजार करती रहूं या उनके बच्चे की शरारत से खीझती रहूं। यह तो कभी आशा ही नहीं की जा सकती कि वे मेरे लिए काई साड़ी लाएंगे या कोई गहना बनवाएंगे। आएंगे भी तो गुमसुम, उदास मुंह बनाए। आदमी क्या हैं बीसवीं सदी के कीड़े हैं। मालतीदेवी, क्या कहूं। उन्होंने कुछ ऐसी ठण्डी तबीयत पाई है कि क्या कहूं। मुझे तो अपनी मिलने वालियों में उन्हें अपना पति कहने में शर्म लगती है।"

'हिन्दुस्तान में हजारों स्त्रियों की दशा तुम्हारी ही जैसी है बहिन। इससे उद्धार होने का उपाय स्त्रियों का साहस ही है।'

'मैं तो अब इस जीवन से ऊब गई हूं। भला यह भी कोई जीवन है?'

'अपने आत्मसम्मान की, अधिकारों की, स्वाधीनता की रक्षा करो।'