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२६ :: अदल-बदल
 

व्यक्तियों को मोहकर उन्हें अपने अनुकूल करने की विद्या में वे खूब सिद्धहस्त थीं।

मायादेवी की एक सहेली ने उनसे मायादेवी का परिचय कराया था। मायादेवी मालतीदेवी पर जी-जान से लहालोट थी। वह हर बात में उन्हें आदर्श मान उन्हीं के रंग-ढंग पर अपना जीवन ढालती जाती थी। परन्तु, मालतीदेवी के समान न तो वह विदुषी थी न स्वतन्त्र। उसके पति की आमदनी भी साधारण थी। अत: ज्यों-ज्यों मायादेवी मालती की राह चलती गई, त्यों-त्यों असुविधाएं उसकी राह में बढ़ती गईं, खर्च और रुपये-पैसे के मामले में उसका बहुधा पति से झगड़ा होने लगता। उसका अधिक समय आजाद महिला-संघ में, मालतीदेवी की मुसाहिबी में, गुजरता। घर से प्रायः वह बाहर रहती। इससे उनकी घर-गृहस्थी बिगड़ती चली गई। परन्तु जब उसके बढ़े हुए खर्चे में पति की सारी तनख्वाह भी खत्म होने लगी और रोज के खर्चे का झंझट बढ़ने लगा तब तो मास्टर जी का भी धैर्य छूट गया। और अब असन्तोष और गृह-कलह ने बुरा रूप धारण कर लिया। परन्तु पति के सौजन्य और नर्मी का मायादेवी गलत लाभ उठाती चली गई। उसकी आवारागर्दी, बेरुखाई, फजूलखर्ची और विवाद की भावनाएं बढ़ती ही चली गईं। उसे कर्ज लेने की भी आदत पड़ गई।

एक दिन मायादेवी ने मालतीदेवी से कहा---'श्रीमती मालतीदेवी, मैं आपका परामर्श चाहती हूं। मैं अपने इस जीवन से ऊब गई हूं। आप मुझे सलाह दीजिए, मैं क्या करूं।'

मालती ने उससे सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए कहा---'मेरी तुमसे बहुत सहानुभूति है, और मैं तुम्हारी हर तरह सहायता करने को तैयार हूं।'

'तो कहिए---मैं कब तक इन पुरुषों की गुलामी करूं।'

'मत सहन करो बहिन, पच्छिम से तो स्वाधीनता का सूर्य