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अंध-लिपि


अंधों को पढ़ाने में जिस तरह के टाइपों या अक्षरों से आजकल काम लिया जाता है, उनका नाम बेली-टाइप है। फ्रांस में पेरिस नगर के निवासी लुई ब्रेली-नाम के एक अंधे ने, १८३६ ई० में, पहलेपहल इनका प्रचार किया। उसकी निकाली हुई वर्ण-माला इतनी सरल है कि बहुत ही थोड़ी मेहनत से उसे अंधे सीख सकते हैं। उसे वे पढ़ भी सकते हैं और लिख भी सकते हैं। सिर्फ़ दो ही चार हफ्ते की मेहनत से अंधे इसे सीख जाते हैं, और इसमें लिखी हुई किताबें वे उतनी ही आसानी और शीघ्रता से पढ़ लेते हैं, जितनी शीघ्रता से चक्षुष्मान् आदमी पढ़ सकते हैं।

अंधों की इस अक्षर-मालिका को वर्ण-माला नहीं, किंतु बिंदु-माला कहना चाहिए। यह माला ६३ प्रकार के बिंदुओं के मेल से बनती है। तीन-तीन बिंदुओं—सिफ़रों—की दो सतरें बनाई जाती हैं। वे सतरें एक के आगे दूसरी, बराबर, रक्खी जाती हैं। प्रत्येक सतर के बिंदु एक दूसरे के नीचे रक्खे जाते हैं। इन्हीं बिदुओं में से कुछ बिंदु काग़ज़ के ऊपर जरा ऊँचे उठा दिए जाते हैं। इन उठे हुए बिंदुओं का क्रम जुदा-जुदा होता है, और प्रत्येक बिंदु-समूह से एक वर्ण, अथवा बहुत अधिक काम में आनेवाले एक शब्द, का ज्ञान होता है। कोई-कोई बिंदु-समूह ऐसा है, जिससे एक वर्ण का भी बोध होता है और एक शब्द का भी। इस प्रकार दो अर्थों के देनेवाले बिदु-समूहों से जहाँ जैसा अर्थ, मुहावरे के अनुसार, अपेक्षित होता है, वहाँ