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परिचित्त-विज्ञान-विद्या


एक ख़बर भेजने के लिये, दूसरा ख़बर लेने के लिये। दोनो का वैद्यतिक बल तुल्य होता है । तुल्यवलत्व ही इस तारबर्क़ी का मूल मंत्र है यदि किसी को मानसिक बिजली का प्रवाह विशेष शक्तिशाली हो जाय, और वैसी ही शक्ति किसी और आदमी के भी मस्तिष्क में पैदा होकर दोनो में तुल्यबलत्व उत्पन्न हो जाय, तो वे दोनो, सहज ही में, परस्पर एक दूसरे से दूर रहकर भी, बातचीत कर सकें। इसमें समान भाव की बड़ी ज़रूरत है। इसमें कोई संदेह नहीं कि बिजली की शक्ति हर आदमी में है। यदि दो आदमी उसे अधिक बलवती करके अपनी मानसिक बिजली की शक्ति को एक ही दरजे का कर दें, तो उनके मन एक हो जायँ। मन की एकता होते ही उनका मानसिक भेद दूर हो जाय। यह अवस्था प्राप्त होते ही एक दूसरे के मन की बात जानने में ज़रा भी कठिनाई न पड़े। विद्युन्मय मानसिक शक्ति को बढ़ाकर भिन्न-भिन्न चित्तों की विद्युन्मात्रा को एक कर देना ही परिचित्त-विज्ञान विद्या का मूल है।

ज़ानसिग साहब ने लंदन के 'डेली मेल' पत्र में अपनी जिंदगी का हाल प्रकाशित किया है। उससे मालूम होता है कि आप अपनी स्त्री के साथ किसी समय भारतवर्ष भी आए थे, और कलकत्ता, बंबई आदि नगरों में अपने परिचित्त-विज्ञान का तमाशा दिखाया था। आपने इस देश के योगियों और ऐंद्रजालिकों की बड़ी तारीफ़ की है। आप कहते हैं--