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अद्भुत आलाप


न मानकर ऐसा मानना चाहिए कि मनुष्य एक जीवधारी है, उममें मन भी एक इद्रिय है। वही सब बोधों को ग्रहण करता है। यदि ऐसा न माना जाय, तो सैकड़ों फ़ोटो उतारनेवाले फ़ोटो- ग्राफ़र को भी फ़ोटोग्राफ़ीं का समुदाय कहना चाहिए। पर फ़ोटो- ग्राफ़र फ़ोटोग्राफ़ी का समुदाय नहीं है, किंतु उनको एकत्र करने वाला है। इसी तरह मन बोधों का समुदाय नहीं, किंतु ग्रहण करनेवाला है। दो व्यक्तियों के होने का कोई पक्का प्रमाण नहीं। हाना के उदाहरण से इतना ही सिद्ध होता है कि चोट लगने से मन अपनी पूर्व-संगृहीत भावनाओं को स्मरण नहीं कर सकता, क्योंकि भावना-ग्राहक तंतुओं में विकार पैदा हो जाता है। यही बात बाक़ी के उदाहरणों का भी कारण है। संस्कार मन को होता है, और संस्कारों के चित्र भी मन ही पर उठते हैं। प्रयोजन पड़ने पर उनका स्मरण जाता रहता है। ध्यान देकर देखी हुई वस्तु बहुत समय बीतने पर भी याद आ जाती है। चोट आदि लगने से मन में विकार पैदा हो जाता है। इससे मन हाना के समान, बिलकुल बालक का-सा, हो जाता है। और, प्रायः सब सांसारिक बातें, हाथ-पैर हिलाना आदि, उसे फिर से सीखना पड़ता है। मन पर संस्कारों के चित्र-से बने रहते हैं। चित्त के संयोग से चित्र प्रत्यक्ष हो जाते हैं।

बिना पुराने संस्कार के कोई बात स्मरण नहीं हो सकती। उपर जो जापानी लेख का उदाहरण दिया गया है, उस विषय में, यदि पूरा पता लगाया जाय, तो मालूम होगा कि हिपनाटिज्म