करनेवाला या प्रयुक्त जन अवश्य किसी समय पुरानी जापानी
भाषा जाननेवाले से मिला होगा।
मई, १९०६
मनुष्येतर अर्थात् मनुष्यों के सिवा और दूसरे पशु-पक्षी आदिक जो जीवधारी हैं, उनको भी परमात्मा ने ज्ञान दिया है। वे सज्ञान तो हैं, परंतु उनको इतना ज्ञान नहीं है, जितना मनुष्य को होता है। उनको भूख-प्यास निवारण करने का ज्ञान है; उनको अपने शत्रु-मित्र के पहचानने का ज्ञान है; उनको चोट लगने अथवा मारे जाने से उत्पन्न हुई पीड़ा का ज्ञान है। ऐसे ही और भी कई प्रकार के ज्ञान पशु-पक्षियों को हैं। परंतु उनके ज्ञान की सीमा नियत है। ज्ञान के साथ-साथ ईश्वर ने उन्हें एक प्रकार की सांकेतिक भाषा भी दी है। हम देखते हैं, जब बिल्ली अपने बच्चे को बुलाती है, तब वह एक प्रकार की बोली बोलती है; जब उसको कोई प्यार करने अथवा उस पर हाथ फेरने लगता है, तब वह दूसरे प्रकार की बोली बोलती है; और जब वह क्रोध में आती है अथवा किमी दूसरी बिल्ली को देखती है, तब वह एक भिन्न ही प्रकार का शब्द करती है। पक्षियों में भी प्रायः यह बात पाई जाती है। वे भी भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न प्रकार का शब्द करते हैं।