"सुबह होने के बहुत पहले ही से हरद्वार के आस-पास का प्रांत कोसों तक कोलाहल और धूम-धड़ाके से भर गया। हर सड़क से हज़ारों यात्री शहर में घुसने लगे। जैसे-जैसे मंदिर की तरफ़ यात्रियों के झुंड-के-झुंड चलने लगे, वैसे-ही-वैसे शंख, भेरी और नगाड़ों के नाद से आसमान फटने लगा। प्रत्येक गली-कूचा आदमियों से ठसाठस भर गया। नीचे यह हाल, ऊपर निरभ्र आकाश में लाल-लाल सूर्य अपनी तेज़ किरणों की वर्षा करने लगा।
"हम लोगों ने शक्कर के साथ थोड़ी-सी गेहूँ की रोटी और फल खाकर मंदिर की तरफ प्रस्थान किया। इसी मंदिर के हाते में योगिराज समाधिस्थ होने को थे। हम ज़रा जल्दी गए, जिसमें बैठने को अच्छी जगह मिल जाय। मंदिर के फाटक पर हमें कुछ पुजारी मिले। उन्होंने हमारी अगवानी की। हमारे मित्र के वे मित्र थे। वे लोग हमें मंदिर के हाते में एक बहुत विस्तृत चौकोन जगह में ले गए। वह एक बड़ी वेदी-सी थी। वहीं पर योगिराज समाधिस्थ होनेवाले थे। हज़ारों पंडित, पुजारी और पुरोहित दुग्धफेन-निभ वस्त्र पहने हुए वहाँ पहले ही से बैठे थे। हम वहाँ पहुँचे ही थे कि उपस्थित आदमियों में उत्तेजना फैल गई। इस आकस्मिक गड़बड़ से सूचित हुआ कि कोई विशेष बात होनेवाली है।
"हमारे मित्र ने कहा—परमहंस महात्मा पर्वत के नीचे आ गए। अब वह यहाँ आ रहे हैं। आप शायद जानते होंगे कि