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क्या जानवर भी सोचते हैं?


देख पड़ते। किसी आंतरिक प्रवृत्ति, उत्तेजना या शक्ति की प्रेरणा से ही वे सब शारीरिक व्यापार करते हैं। किसी मतलब से कोई काम करना बिना ज्ञान के---बिना बुद्धि के---नहीं हो सकता। ज्ञान दो तरह का है-स्वाभाविक और उपार्जित। स्वाभाविक पशुओं में और उपार्जित मनुष्यों में होता है। हम सब काम सोच-समझकर जैसा करते हैं, जानवर वैसा नहीं करते। उनमें विचार-शक्ति ही नहीं; उनके मन में विचारों के रहने की जगह ही नहीं; क्योंकि वे वोल नहीं सकते। ठीक-ठीक विचारणा या भावना बिना भाषा के नहीं हो सकती। भाषा ही विचार की जननी है। भाषा ही से विचार पैदा होते हैं। वाणी और अर्थ का योग सिद्ध ही है। शब्दों से अर्थ या विचार उसी तरह अलग नहीं हो सकते, जैसे पदार्थों के आकार उनसे अलग नहीं हो सकते। जहाँ आकार देख पड़ता है, वहाँ पदार्थ ज़रूर होता है। जहाँ विचार होता है, वहाँ भापा ज़रूर होती है। बिना भाषा के विषय-ज्ञान और विषय-प्रवृत्ति इत्यादि-इत्यादि बातें हो सकती हैं, परंतु विचार नहीं हो सकता। पशु अपनी इंद्रियों की सहायता से ही पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जो पदार्थ समय और आकाश में विद्यमान रहते हैं, सिर्फ़ उन्हीं का ज्ञान पशुओं को इंद्रियों से होता है, और पदार्थों का नहीं। पशुओं में स्मरण शक्ति नहीं होती। पुरानी बाते उन्हें याद नहीं रहतीं। यही पूर्वोक्त साहब का मत है।

इनमें से बहुत-सी बातों का खंडन हो सकता है। कुछ का