पृष्ठ:अनामिका.pdf/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सरोज-स्मृति
 

सोचा मन में हत बार बार—
"ये कान्यकुब्ज-कुल कुलाङ्गार;
खाकर पत्तल में करे छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फल,
यह दग्ध मरुस्थल—नहीं सुजल।"
फिर सोचा—"मेरे पूर्वजगण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूँ पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार
ढोते मैं हूँ अक्षम; निश्चय
आयेगी मुझमें नहीं विनय
उतनी जो रेखा करे पार
सौहार्द-बन्ध की, निराधार।
वे जो यमुना के-से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार

: १२९ :