पृष्ठ:अनामिका.pdf/१४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
अनामिका
 

खाये के मुख ज्यों, पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गन्ध,
उन चरणों को मैं यथा अन्ध,
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूँ, ऐसी नहीं शक्ति।
ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह।"
फिर आई याद—"मुझे सज्जन
है मिला प्रथम ही विद्वज्जन
नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,
कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक
होगा कोई इङ्गित अदृश्य,
मेरे हित है हित यही स्पृश्य
अभिनन्दनीय!" बँध गया भाव,
खुल गया हृदय का स्नेह-स्त्राव,
ख़त लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,
युवक भी मिला प्रफुल्ल, चेतन।

: १३० :