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अनामिका
 

देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू, हँसी मन्द,
होठों में बिजली फँसी, स्पन्द
उर में भर भूली छवि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-सङ्ग,
विश्वास स्तब्ध बँध अङ्ग-शृङ्ग,
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैंने यह मूर्ति-धीति
मेरे वसन्त की प्रथम गीति—
शृङ्गार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-सङ्ग—
भरता प्राणों में राग-रङ्ग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही‌।

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