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सरोज-स्मृति
 

बोला मैं—"मैं हूँ रिक्त-हस्त
इस समय, विवेचन में समस्त—
जो कुछ है मेरा अपना धन
पूर्वज से मिला, करूँ अर्पण
यदि महाजनों को तो विवाह
कर सकता हूँ, पर नहीं चाह
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूँ, यह नही सुघर,
बारात बुलाकर मिथ्या-व्यय
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।
तुम करो व्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के; पढूँगा स्वयं मन्त्र
यदि पण्डित जी होंगे स्वतन्त्र।
जो कुछ मेरे, वह कन्या का,
निश्चय समझों, कुल धन्या का।
आये पण्डित जी, प्रजावर्ग,
आमन्त्रित साहित्यिक, ससर्ग

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