पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१०१

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का प्रध्यय: स्यानयोग आत्माको परमात्माके साथ जोड़ता है और मेरी प्राप्तिमें मिलनेवाली मोक्षरूपी परम शांति प्राप्त करता है। १५ नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥१६॥ हे अर्जुन ! यह समत्वरूप योग न तो प्राप्त होता है लूंसकर खानेवालेको, न उपवासीको, वैसे ही, वह बहुत सोनेवाले या बहुत जागनेवालेको प्राप्त नहीं होता। १६ युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य , कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥१७॥ जो मनुष्य अहार-विहारमें, दूसरे कर्मोंमें, सोने- जागनेमें परिमित रहता है, उसका योग दुःखभंजन हो जाता है। १७ यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ।।१८।। भलीभांति नियमबद्ध मन जब आत्मामें स्थिर होता है और मनुष्य सारी कामनाओंसे निस्पृह हो योगी कहलाता १८ यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य युजतो योगमात्मनः ।।१९।। बैठता है तब वह है।