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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१००

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अनासक्तियोग .. ऐसा कुश, मृगचर्म और वस्त्र एक-पर-एक बिछाकर स्थिर आसन अपने लिए करके, वहां एकाग्र मनसे बैठकर चित्त और इंद्रियोंको वश करके आत्मशुद्धिके लिए योग साधे। ११-१२ सम कायशिरोग्रीवं धारयन्न चलं स्थिरः । संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥१३॥ प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः सयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥१४॥ धड़, गर्दन और सिर एक सीधमें अचल रखकर, स्थिर रहकर, इधर-उधर न देखता हुआ, अपने नासिकाग्र पर निगाह टिकाकर पूर्ण शांतिसे, निर्भय होकर, ब्रह्मचर्यमें दृढ़ रहकर, मनको मारकर मुझमें परायण हुआ योगी मेरा ध्यान धरता हुआ बैठे। १३-१४ टिप्पनी-नासिकाग्रसे मतलब है भृकुटीके बीचका भाग। (देखो अध्याय ५-२७ ।) ब्रह्मचारीव्रतका अर्थ केवल वीर्यसंग्रह ही नहीं है, बल्कि ब्रह्मको प्राप्त करने- के लिए आवश्यक अहिंसादि सभी व्रत हैं। युञ्जन्नेव सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्ति निर्वाण परमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥१५॥ इस प्रकार जिसका मन नियममें है ऐसा योगी