पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१०३

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या मध्याव: मानयोग ce .. . संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः । मनसैवेन्द्रियग्राम विनियम्य समन्ततः ॥२४॥ शनैः शनैरुपरमेबुद्धया धृतिगृहीतया । आत्मसस्थ मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ।।२५।। संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सारी कामनाओंका पूर्ण रूपसे त्याग करके, मनसे ही इंद्रियसमूहको सब ओरसे भलीभांति नियममें लाकर अचल बुद्धिसे योगी धीरे-धीरे शांत होता जाय और मनको आत्मामें पिरोकर, दूसरी किसी बातका विचार न करे। ४२-२५ यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यतदात्मन्येव वश नयेत् ॥२६॥ जहां-जहां चंचल और अस्थिर मन भागे, वहां- वहांसे (योगी) उसे नियममें लाकर अपने वशमें २६ प्रशान्तमनस ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् । उपैति शान्तरजस ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥२७।। जिसका मन भलीभांति शांत हुआ है, जिसके विकार शांत हो गए हैं, ऐसा ब्रह्ममय हुआ निष्पाप योगी अवश्य उत्तम सुख प्राप्त करता है। २७ युञ्जन्नेव सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्त सुखमश्नुते ॥२८॥ लावे ।