पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१०४

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मनासपियन आत्माके साथ निरंतर अनुसंधान करते हुए पाप- रहित हुआ यह योगी सरलतासे ब्रह्मप्राप्तिरूप अनंत सुखका अनुभव करता है। २८ सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥२९॥ सर्वत्र समभाव रखनेवाला योगी अपनेको सब भूतोंमें और सब भूतोंको अपने में देखता है। २९ यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वच मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥३०॥ जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, वह मेरी दृष्टिसे ओझल नहीं होता और मैं उसकी दृष्टिसे ओझल नहीं होता। ३० सर्वभूतस्थित यो मां भजत्येकत्वमास्थितः । सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।।३१।। मुझमें लीन हुआ जो योगी भूतमात्रमें रहनेवाले मुझको भजता है, वह चाहे जिस तरह बर्तता हुआ भी मुझमें ही बर्तता है। टिप्पसी-'आप' जबतक है तबतक तो परमात्मा 'पर' है; 'आप' मिट जानेपर-शून्य होनेपर ही एक परमात्माको सर्वत्र देखता है । (अध्याय १३-२३ की टिप्पणी देखिये।)