पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१०९

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का मध्याव : मानयोग लगनसे प्रयत्न करता हुआ योगी पापसे छूटकर अनेक जन्मोंसे विशुद्ध होता हुआ परम गतिको पाता तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कमिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।।४।। तपस्वीसे योगी अधिक है, ज्ञानीसे भी वह अधिक माना जाता है, वैसे ही कर्मकांडीसे वह अधिक है, इसलिए हे अर्जुन ! तू योगी बन । ४६ टिप्पती--यहां तपस्वीकी तपस्या फलेच्छायुक्त है । ज्ञानीसे मतलब अनुभवज्ञानीसे नहीं है। योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । श्रद्धावान्भजते यो मा स मे युक्ततमो मतः ।।४७।। सारे योगियोंमें भी उसे में सर्वश्रेष्ठ योगी मानता जो मुझमें मन पिरोकर मुझे श्रद्धापूर्वक भजता ४७ hce sho ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद अर्थात् ब्रह्म- विद्यांतर्गत योगशास्त्रके श्रीकृष्णार्जुनसंवादका 'ध्यान- योग' नाम छठा अध्याय ।