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ज्ञानविज्ञानयोग इस अध्यायमें यह समझाना आरंभ किया गया है कि ईश्वरतत्व और ईश्वरभक्ति क्या है। श्रीभगवानुवाच मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः । असंशय ममग्रं मा यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।। १ ।। श्रीमगवान बोले- हे पार्थ ! मेरेमें मन पिरोकर और मेरा आश्रय लेकर योग साधता हुआ तू निश्चयपूर्वक और संपूर्णरूपसे मुझे किस तरह पहचान सकता है सो - सुन । १ ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिद वक्ष्याम्यशेषतः । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।। २ ।। अनुभवयुक्त यह ज्ञान में तुझे पूर्णरूपसे कहूंगा। इसे जानने के बाद इस लोकमें अधिक कुछ जाननेको नहीं रह जाता। २ मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥३॥