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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/११

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- तेरह -

तेरह मासस्यरहित होकर कर्म न करता रहूं तो इन लोकोंका नाश हो पाय।" तो फिर लोगोंके लिए पूछना ही क्या रह जाता है ? परंतु एक मोरसे कर्ममात्र बंधनरूप है, यह निर्विवाद है। दूसरी मोरसे देही इच्छा-अनिच्छासे भी कर्म करता रहता है। शारीरिक या मानसिक सभी चेष्टाएं कर्म हैं। तब कर्म करते हुए भी मनुष्य बंधनमुक्त कैसे रहे ? जहांतक मुझे मालूम है, इस समस्याको गीताने जिस तरह हल किया है वैसे दूसरे किसी भी धर्मग्रंथने नहीं किया है। गीताका कहना है, “फलासक्ति छोड़ो मौर कर्म करो", "भाशारहित होकर कर्म करो", "निष्काम होकर कर्म करो।" यह गीताकी वह ध्वनि है जो भुलाई नहीं जा सकती। जो कर्म छोड़ता है वह गिरता है। कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है वह चढ़ता है। फलत्यागका यह अर्थ नहीं है कि परिणामके संबंधमें लापरवाही रहे। परिणाम और साधनका विचार मोर उसका ज्ञान प्रत्यावश्यक है। इतना होनेके बाद जो मनुष्य परिणाम- की इच्छा किये बिना साधनमें तन्मय रहता है वह फलत्यागी है। पर यहा फलत्यागका कोई यह अर्थ न करे कि त्यागीको फल मिलता नही। गीतामें ऐसे अर्थको कही स्थान नही है। फलत्यागसे मतलब है फलके संबंधमें मासक्तिका प्रभाव । वास्तवमें देखा जाय तो फलत्यागीको तो हजारगुना फल मिलता है। गीताके फलत्यागमें तो अपरिमित श्रद्धाकी परीक्षा है । जो मनुष्य परिणामका ध्यान करता रहता है वह बहुत बार कर्म-कर्त्तव्यभ्रष्ट हो जाता है। उसे अधीरता घेरती है, इससे वह क्रोधके वश हो जाता है और फिर वह न करने योग्य करने लग पड़ता है, एक कर्म- मेसे दूसरेमें मोर दूसरे से तीसरेमें पड़ता जाता है। परिणामकी चिंता करने- वालेकी स्थिति विषयांधकी-सी हो जाती है और अंतमें वह विषयीकी भांति सारासारका, नीति-अनीतिका विवेक छोड़ देता है और फल प्राप्त करनेके लिए हर किसी साधनसे काम लेता है और उसे धर्म मानता है।