करनेवाला है, जो शत्रु-मित्रपर समभाव रखनेवाला है, जिसे मान-अपमान समान है, जिसे स्तुतिसे खुशी नहीं होती और निंदासे ग्लानि नहीं होती, जो मौनधारी है, जिसे एकांत प्रिय है, जो स्थिरबुद्धि है, वह भक्त है। यह भक्ति प्रासक्त स्त्री-पुरुषोंमें संभव नहीं है। इसमेंसे हम देखते हैं कि ज्ञान प्राप्त करना, भक्त होना ही प्रात्मदर्शन है। मात्मदर्शन उससे भिन्न वस्तु नहीं है। जैसे रुपयेके बदले में जहर खरीदा जा सकता है और अमृत भी लाया जा सकता है, वैसे शान या भक्तिके बदले बंधन भी लाया जा सके और मोक्ष भी, यह संभव नहीं है । यहां तो साधन और साध्य, बिलकुल एक नही तो लगभग एक ही वस्तु हैं, साधनकी पराकाष्ठा जो है वही मोक्ष है और गीताके मोक्षका अर्थ परमशांति है। किंतु ऐसे शान और भक्तिको कर्मफलत्यागकी कसौटीपर चढ़ना ठहरा । लौकिक कल्पनामें शुष्क पंरित भी ज्ञानी मान लिया जाता है। उसे कुछ काम करनेको नहीं रहता। हायसे लोटा तक उठाना भी उसके लिए कर्मबधन है। यज्ञशून्य जहां शानी गिना जाय वहां लोटा उठाने-जैसी तुच्छ लौकिक क्रियाको स्थान ही कैसे मिल सकता है ? लौकिक कल्पनामें भक्तसे मतलब है बाह्याचारी,' माला लेकर जप करनेवाला। सेवाकर्म करते भी उसकी मालामें विक्षेप पड़ता है। इसलिए वह खाने-पीने प्रादि भोग भोगनेके समय ही मालाको हाथसे छोड़ता है, चक्की चलाने या रोगीको सेवा-शुश्रूषा करनेके लिए कभी नहीं छोडता । इन दोनों वर्गोको गीताने साफतौरसे कह दिया, “कर्म बिना किसीने सिद्धि नहीं पाई। जनकादि भी कर्मद्वारा शानी हुए । यदि में भी 'जो बाह्याचारमें लीन रहता है और शुद्ध भावसे मानता है कि यही भक्ति है।
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